फ़ालतू किताब


जुलाई 1999 
            
                     
              कहते हैं माँ का स्वाभाव बहुत ही कोमल होता है। और होता भी क्यों नहीं ? माँ का जन्म ही ममता बरसाने के लिए हुआ है। माँ दुनिया का सबसे उत्तम और अनुपम उपहार है। इसके आगे तो सभी नतमस्तक हैं।  लेकिन कुछ हिस्सों में माँ कठोर भी होती है ये बात गोलू से बेहतर और कौन जान सकता है। 

गोलू अपने गाँव की एक निजी स्कूल में कक्षा 4 में पढता है। अभी वो महज 9 साल का है। उसे वस्तुओं के रख रखाव के बारे में क्या पता होगा! पर माँ तो माँ होती है न सब सीखा देती है। अभी गोलू बहार दोस्तों के साथ खेलने गया हुआ है। आज रविवार जो है। पूरा दिन खेलने का और भरपूर मार खाने का दिन भी है। ये मार खाने का सिलसिला आज से नहीं है बहुत दिनों से चल रहा है। और हर बार अलग अलग बात के लिए। माँ घर से बाहर निकली गोलू को देखने के लिए। किन्तु फिर थोड़ी ही देर में अंदर चली गयी शायद कुछ सोच रही थी। फिर कुछ काम करने लग गयी। 




थोड़ी देर में फिर काम छोड़ा और गोलू को बुलाने के लिए घर से बाहर आई। 

किसी लड़के को आवाज़ दी -"सोनू, ज़रा गोलू को भेजना। बोलना कोई काम है।" ये अच्छा बहाना होता है किसी बच्चे को बुलाने का। और हो भी क्यों नहीं। यही तो जीवन की समझने वाली चीज है। इसको मैंने बाद में सीखा। अगर आपको किसी से काम करवाना हो तो अपनी समस्या को इतना बड़ा बनाकर कहो की सामने वाले को अपनी समस्या छोटी लगने लगी। और फिर वो खुद ब खुद करने को तैयार हो जाएगा। 
फिर सोनू ने कहा -"हाँ  ताई जी, बुलाता हूँ।" और फिर सोनू के बोलने की आवाज़ आई-"गोलू तेरी माँ बुला रही है कोई जरूरी काम है।" 
लेकिन गोलू तो गोलू है ना, थोड़ी देर और खेल लूँ  फिर चला जाऊँगा। अभी तो 11 बजने में समय है। ऐसा लगा जैसे गोलू को पता है की उसकी माँ को क्या काम है उससे। -"हाँ हाँ जाता हूँ अभी।" 

फिर थोड़ी देर में गोलू घर आता है। गोलू को देख माँ का पारा तो देखने लायक था। जैसे उसकी आँखों से अंगारे बरस रहे थे। उसके चेहरे के हर जगह से गुस्सा नजर आ रहा था। पर उसके मन में फिर ममता जाग गयी और बोली -"सारा दिन बाहर ही रहेगा क्या? नहान धोना तो तुझे है ही नहीं!" माँ काम भी कर रही थी और बोलती भी जा रही थी, इधर गोलू धीरे धीरे गेट से अंदर जा रहा था। "देख तेरी हालत कैसी हो गयी है। पूरा गंदा हो गया है। सुबह सात बजे का गया हुआ है। देख घड़ी में क्या समय हुआ है। दस बज गए हैं दस। अब चुपचाप कपडे उतार और नहा ले।" 

गोलू बोला -"माँ थोड़ी देर और खेलने देती तो क्या हो जाता। आज छुट्टी ही तो है। और फिर थोड़ी देर में तो सभी लोग जाने वाले थे। पर तुझे पता नहीं क्या जल्दी रहती है। थोड़ी देर बाद भी तो नहा सकता था ना।"

माँ -"उन सब बच्चों को तो कोई काम नहीं है। थोड़ी देर खेलने के लिए कहा था। खेल तो आया। और अब ज्यादा जुबान मत लड़ा। नहीं तो फिर तू जानता है न।" थोड़ी देर तक टकटकी लगाए गोलू को देखती रही। पर कुछ तो मासूमियत नज़र आती है माँ को। मैं तो आज तक नहीं जान पाया। फिर पता पता नहीं गुस्सा कैसे प्यार में तब्दील हो जाता है -"अच्छा पहले हाथ मुँह धो ले। और फिर बैठक में तेरे मामाजी आये हुए है। उनसे मिल ले। चल।" फिर समझ आया ये प्यार गोलू के लिए नहीं मामाजी के लिए उमड़ा था। 


गोलू बोला -"क्या मामाजी आये हैं। ये बात पहले नहीं बोली।" फिर गोलू बिना हाथ धोये ही मामाजी के पास चला जाता है। वो उसे अभिवादन करता है और उनकी गोद में बैठ जाता है। और माँ पीछे से चिल्लाती रह जाती है -"अरे हाथ मुँह तो धो ले। गंदे हो रहे है। अरे कोई बात तो सुन लिया कर।" अब गोलू क्यों किसी की सुनेगा। फिर गोलू और उसके मामाजी आपस में बात करने लग गए। 


थोड़ी देर बाद ही गोलू के मामाजी किसी काम से गोलू के पिताजी को लेकर चले गए। फिर गोलू की माँ ने उसे जबरदस्ती पकड़कर नहला दिया। उसे पूरे सेवा भाव से तैयार कर दिया। फिर बोली-"अब जा कुछ पढ़ ले। सारा दिन कुछ न कुछ करता रहता है। और पढ़ने का नाम भी नहीं।" 


गोलू चुपचाप कमरे में चला जाता है। और कमरे में घुसते ही न जाने क्यों वो इन सब बातों को भूल जाता है। और एक अखबार का पेपर लेकर उसे कैची से काटने में लग जाता है। पता नहीं क्या बना रहा था। पर घंटों से काट काट कर कचरा फैला दिया था। और माँ को कचरा पसंद नहीं था। 


माँ अपने कामो से निरस्त होकर गोलू को देखने कमरे में जाती है की गुस्से का पारा सातवे आसमान पर। अब लग रहा था की गोलू की खैर नहीं। गोलू को लगता कि ये मुझे अपनी मर्ज़ी का तो कुछ करने ही नहीं देते हैं। और माँ को लगता की ये पढाई पर ध्यान क्यों नहीं देता है। सारा दिन मटरगस्ती ही करता रहता है। 


फिर माँ ने अपने आप को शांत किया और कहा -"गोलू तू पढ़ क्यों नहीं लेता है। तू पढ़ेगा नहीं तो तुझे कोई प्यार नहीं करेगा। तू अपनी मर्ज़ी का कर पर पढ़ाई भी तो कर इसके साथ! तू बहुत समझदार है।" माँ ने हलकी और प्रेम भरी आँखों से कहा - "अच्छा चल अब कुछ पढ़ ले। फिर तेरे लिए जो तुझे पसंद होगा वो खाना बना के देती हूँ। ठीक।" गोलू मान जाता है और कमरे के बाहर बरामदे में बैठकर पढ़ने लगा।  वो कुछ गणित के सवाल हल कर रहा था। पर गोलू तो गोलू है ना। फिर भूल गया उसे क्या समझाया था। माँ फिर अपने काम में व्यस्त हुई और वो अपनी कॉपी में कुछ और ही करने लगा। न जानेक्या चित्र बना रहा था। माँ अपना काम ख़तम कर फिर उसके पास आयी।  देखा तो गोलू फिर कुछ और ही कर रहा था। इस बार माँ का पारा चौदहवें आसमान पर था। उसने उसे जबरदस्ती पकड़ा और अपने पास बैठा के उसके बैग से किताबें निकालने लगी। गोलू की माँ इतनी पढ़ी लिखी नहीं थी। लेकिन छोटे मोठे जोड़, घटा,गुना,भाग आदि सब आता था उसे। वो घर की अर्थव्यवस्था में भी कुशल थी। 


माँ ने डांट लगा कर कहा - "तेरी गणित की किताब कहाँ है?"

गोलू ने कहा -"बैग में ही होगी।" थोड़े रोने और गुस्से के अंदाज में जवाब दिया।
माँ ने हल्की सी मुस्कान भर कर वह बैग खोला तो देखा सारा बैग भरा हुआ है। चौथी कक्षा के बैग में भी कोई इतनी किताबे रखता होगा। बैग बिलकुल ठूसा ठूसा कर भर रखा था। एक किताब निकालते तो तीन तीन बाहर आती थी। अब तो माँ का पारा और भी ज्यादा बढ़ गया। माँ ने सारा बैग उलट दिया। पूरा बरामदा कॉपी और किताब से भर गया। माँ दौड़ी दौड़ी कमरे में गयी तो देखा किताब वाली सारी अलमारी खाली है। कोई एक दो किताबें थी वहाँ। अब तो हाल और ज्यादा बुरा हो गया। पास में रखी लकड़ी उठायी जिससे माँ भैंसो को हाँकती थी और गोलू की तरफ दौड़ी। गोलू थर थर कांपने लगा।  

माँ ने लकड़ी पास में रखी और सारी कॉपी किताबों को अलग अलग किया। फिर एक एक कर के गोलू से पूछने लगी ये किसलिए है। और गोलू जवाब देता जा रहा था। ये गणित की, ये हिंदी की, ये सुलेख की, ये अंग्रेजी की, ये गणित की रफ कॉपी, ये हिंदी की......। और जैसे ही हिंदी की कॉपी का नाम दुबारा आया। माँ ने उसका हाथ थोड़ा सख्ती से पकड़कर पुछा - "हिंदी की कॉपी दुबारा कैसे। एक ये... लगा तो रखी है।" 


गोलू रोते हुए बोला क्योंकि उसकी कलाई दुःख रही थी -"वो कॉपी तो ख़तम होने वाली है न" माँ ने तुरंत वो कॉपी खोली और देखा तो अभी भी वो एक सप्ताह चल सकती थी। माँ ने कहा -"लेकिन अभी तो ये नौ दस दिन तक तो चल ही जायेगी। फिर ये नयी कॉपी क्यों। वजन ले जाने का कुछ ज्यादा ही शौक है क्या? वैसे काम की कहें तो इधर उधर निकल जाता है चकमा देकर।" फिर माँ ने सारी कॉपियां खुद ही छांटी। उस बैग से चार कॉपी और दो किताबें ज्यादा निकली। अब गोलू की खैर नहीं थी। माँ ने उसे एक लकड़ी मारी। गोलू दर्द के मारे चिलाया और ऊई ऊई करने लगा। सारे घर में ऊई ऊई हो गयी थी। पर फिर भी गोलू ने कोई पलट कर जवाब नहीं दिया। 


माँ उसे बार बार पीट रही थी और पूछ रही थी -"फिर भरेगा क्या ऐसे ही बैग? तुझे पता नहीं है कि कौन सी किताब तेरे काम की है और कौन सी नहीं? बता फिर ले जाएगा फालतू किताबें? कॉपी को ठीक से भरेगा? कॉपी के पन्ने फिर से फाड़ेगा?" गोलू के मुख से सिसकी के सिवाय कुछ भी नहीं निकल रहा था। फिर माँ को थोड़ा सा तरस आया। और उसने उसे अपनी किताबें वापस बैग में डालने को कहा। पर गोलू तो गोलू ही है ना। उसने फिर से सारी की सारी किताबें बैग में डाल दी। माँ ने फिर देख लिया। अबकी बार माँ ने डंडे लगाने की बजाय उसे धुप में खड़े होने की सजा दी और वो भी नंगे पावं। जुलाई का महीना और बालू रेत में नंगे पावं खड़े होना बड़ा  मुश्किल है। माँ की डांट के आगे गोलू करता भी क्या। गोलू के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। वो चुपचाप बिना कुछ कहे बरामदे के बाहर बालू रेत में खड़ा हो गया। माँ ने सारा सामान इकट्ठा किया और उसे अलमारी में रख दिया। फिर कुछ बड़बड़ाती हुई अंदर दूसरे कमरे में चली गयी। गोलू धूप में चुपचाप खड़ा रहा और ऊपर बादल की तरफ देख कर कुछ सोचने लगा। वो फिर भी अपनी ही बातों में मग्न था।  


माँ अंदर गयी और फिर थकान के मारे के मारे थक कर सो गयी और गोलू धूप में खड़ा है ये बात वो भूल गयी। करीब आधे घंटे बाद जब आँख खुली तो उसे याद आया की गोलू तो कब से धुप में ही खड़ा है। वो उठी और कमरे से बाहर आयी तो देखा वो आसमान की और देख रहा है और अभी भी चुपचाप खड़ा है। माँ ने अंदर के छिपे प्यार को थोड़ा दबाया और कहा - "चल अब अंदर आजा। " माँ ने हाथ मुँह धोये और रसोई में चली गयी। थोड़ी देर के बाद एक प्लेट में हलवा डालकर लायी और गोलू को बुलाने लगी। जब वो एक आवाज पर नहीं आया तो तो माँ उसे खुद देखने आ गयी। देखा तो गोलू सो रहा था उसे इतनी थकान हो गयी थी की चारपाई पर बैठते ही नींद आ गयी। ये देख थोड़ा तरस, थोड़ा प्यार और थोड़ी मुस्कान माँ के चेहरे पे नजर आ रही थी। उसने उस हलवे को थोड़ा ठंडा किया और फिर गोलू को जगाया -"गोलू! खड़ा हो जा और हलवा खा ले। चल खड़ा हो थोड़ा हलवा खा के सो जाना।" वो प्यार बहुत ही गहरा था। गोलू को उस वक़्त तो समझ नहीं आया पर वो वास्तव में ही बहुत गहरा था। माँ ने कैसे वो लम्हा व्यवस्थित किया ये तो वो ही जानती है।  


वो कड़कती धूप जो गोलू ने झेली वो शायद उसने फिर कभी नहीं झेली। उस समय गोलू ने बहुत सी ऐसी प्रतिक्रियाएं दी जो सिर्फ गोलू ही समझ सकता है। उस पर शायद माँ को भी बाद में बड़ा प्रेम आया होगा की वो वहीँ पर धूप में खड़ा रहा जब तक मैंने उसे आने को ना कहा। माँ ने अपने गोलू में उस दिन बहुत कुछ देखा। पर गोलू तो गोलू हैं न वो अब भी अपनी ही धुन में था। वो धूप में खड़े रहने की सजा, पता नहीं उसे याद रहेगी की नहीं। पर वो बिना विरोध वाला बचपन जरूर उसे याद रहेगा। 




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